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वही
उस वस्तु या तृतीय व्यक्ति की ओर निश्चित रूप से संकेत करने वाला सर्वनाम जिसके संबंध में कुछ कहा जा चुका हो
वही अपना जो अपने काम आए
जिस से मतलब निकले वह सगे एवं स्वजन अथवा अपनों के बराबर है, जो अपनी सहायता करे वही प्यारा है
वही तो कहूँ
۔(दिल्ली) मुझे ख़ुद ही ये ख़्याल आता है।(इबनुलवक़्त) शार्प। वही तो कहूं ना तो आप की सूरत इन की सूरत से मिलती है और ना उन की वज़ा तो बिलकुल साहिब लोगोंकी है।
वही हम वही तुम
۔۱۔ ہم تم ایک دوسرےکے قدیم واقف کار ہیں۲۔ اتحاد باہمی کے لئے مستعمل ہے۳۔ مساوات ظاہر کرنے کے لئے بھی مستعمل ہے۔
वही तीन बीसी , वही साठ
नतीजा दोनों का एक ही है, चाहे यूं कहो और चाहे वों, बात एक ही है, एक ही बात है, एक ही हक़ीक़त है
वही हम हैं वही तुम हो
हम तुम एक दूसरे के क़दीमी वाक़िफ़ कार हैं, हम तुम एक जैसे हैं, हम में और तुम में कोई फ़र्क़ नहीं, जो हम हैं वही तुम इस लिए आपस में लड़ना झगड़ना नहीं चाहिए नीज़ हम दोनों में से कोई नहीं बदला है
वही कुँवाँ खोदना वही पानी पीना
हमेशा की तरह रोज़ कमाना रोज़ खाना, दिन-भर कमाना शाम को खा लेना (उस वक़्त मुस्तामल जब हालत में कोई बेहतर तबदीली वाक़्य ना हो)
वही मियाँ दरबार वही चूल्हा फूँकने को
अपने काम आला अदना सब तरह के करने पड़ते हैं, ऐसे मौके़ पर मुस्तामल जब किसी शख़्स को अपने सारे छोटे बड़े काम ख़ुद ही करने पढ़ें
वही मियाँ दरबार वही चूल्हा झोंकने को
अपने काम आला अदना सब तरह के करने पड़ते हैं, ऐसे मौके़ पर मुस्तामल जब किसी शख़्स को अपने सारे छोटे बड़े काम ख़ुद ही करने पढ़ें
वही बड़ा जगत में जिन करनी के तान, कर लेना है अपना महाराज भगवान
وہ دنیا میں بڑا آدمی ہے جس نے نیک کام کر کے خدا کو اپنا کر لیا
वही मुर्ग़ की ऐक टाँग
हर फिर के एक ही बात कहना, घड़ी घड़ी कही हुई बात कहना, एक ही रिट लगाना, एक ही बात की पिच किए जाना, आदतों में कोई तबदीली ना आना
वही मुर्ग़े की ऐक टाँग
हर फिर के एक ही बात कहना, घड़ी घड़ी कही हुई बात कहना, एक ही रिट लगाना, एक ही बात की पिच किए जाना, आदतों में कोई तबदीली ना आना
वही मुर्ग़ी की ऐक टाँग
हर फिर के एक ही बात कहना, घड़ी घड़ी कही हुई बात कहना, एक ही रिट लगाना, एक ही बात की पिच किए जाना, आदतों में कोई तबदीली ना आना
वही बात घोड़े की लात
इस वक़्त मुस्तामल जब बच्चे अपने किसी दोस्त को कोई बात याद दिलाते हैं, बेअसल बात की निसबत भी बोलते हैं
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
(मिसरा बतौर फ़िक़रा मुस्तामल) क़िस्मत की बात हर हाल में वाक़्य होकर रहती है, मुक़द्दर का लिखा टलता नहीं, जब कोई आदमी किसी के साथ बुराई करता है और दूसरा इस आंच से महफ़ूज़ रहता है तो उस वक़्त भी ये मिसरा पढ़ते हैं
वही भला है मेरे लेखे हक़ नाहक़ को जो नर देखे
मेरे नज़दीक वो बड़ा आदमी है जो इंसाफ़ करे और बे इंसाफ़ी ना करे
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